Sunday, December 16, 2012

श्री खुडियार माता

श्री आवड माता


महादेवी श्री हिंगलाज माता

तेमड़ेराय जी जैसलमेर

श्री महामाया आवड देवी(तेमड़ेराय जी)
 !!जैसलमेर!!
श्री महामाया आवड़ा देवी ने मामड़जी मादा शाखा के यहाँ जन्म धारण किया , मामड़जी जी निपुतियां थे , एक बार अपने घर से कहीबहार जा रहे थे उस समय भाट जाति की कन्याए जो सामने से जा रही थी उन कन्याओ ने मामड़जी को देख रास्ते मे अपूठी खड़ी हो गईक्योकि सुबह के समय निपुतियें व्यक्ति का कोई मुह देखना नही चाहता , इस बात का रहस्य मामड़जी को समझ मे आ गया , वह दुखी होकर वापिस घर आ गए , मामड़जी के घर पर आदि शक्ति का एक छोटा सा मन्दिर था , वहा पुत्र कामना से अनशन धारण कर सात दिन तकबिना आहार मैया की मूर्ति के आगे बेठे रहे , आठवे दिन उन्होंने दुखी होकर अपना शरीर त्यागने के लिए हाथ मे कटारी लेकर ज्युहीं मरनेलगे उसी समय शिव अर्धांगनी जगत जननी गवराजा प्रसन्न हुवे , उन्होंने कहा - तुने सात दिन अनशन व्रत रखा हे , इसलिए मे सात रूपोंमे तुम्हारे घर पुत्री रूपों मे अवतार धारण करुगी और आठवे रूप मे भाई भैरव को प्रगट करुँगी , तुम्हे मरने की कोई आवश्यकता नही हे , इतना कह कर मातेश्वरी अंतरध्यान हो गई ! सवंत ८०८ चैत्र शुद्धी नम शनिवार के दिन (उमट) आई नाम से अवतार धारण किया ! इसी क्रम मे होल - हुली (हुलास बाई ) , गेल - गुलीगुलाब बाई ) , राजू - रागली (रंग बाई) , रेपल - रेपली (रूपल बाई ) , साँची - साचाई (साँच बाई ) व सबसे छोटी लंगी (लघु बाई ) खोड़ियारआदि नामों से सातों बहनों कर जन्म हुवा ! जिसमे महामाया आवड़ व सबसे छोटी लघु बाई - खोड़ियार सर्वकला युक्त शक्तियाँ का अवतारबताया गया ! इस प्रकार आठवे रूप मे भाई का जन्म बताया गया , जिसका नाम मेहरखा था

मातेश्वरी का जन्म स्थान बलवीपुर जिला सौराष्ट्र , रोहिशाला ग्राम बताया गया हे ! उस समय उक्त स्थान का अन्तिम राजा शिलादिव्य था , कुछ समय पश्चात सिंध प्रान्त जहा हिंदू शासक हमीर समा राज्य करता था उस समय अरब स्थान के सम्राट मोहम्मद कासम न जबरदस्तीराजा का धर्म परिवर्तन कराया गया था उसने बादशाह की गुलामी करते हुवे अपना नाम अमर सुमरा रख दिया , सुमरा ने अपनी प्रजा परधर्म परिवर्तन करने का अनैतिक दबाव डाला , इस प्रान्त मे चारण जाति के अनेक ग्राम थे , उन्होंने धर्म परिवर्तन का विरोध किया , इससेकुपित होकर सुमरा चारण जाति के साथ अत्याचार करने लगा तब अनेक चारण परिवार वतन छोड़कर सौराष्ट्र प्रान्त की तरफ़ चल दिए , उक्त सत्य घटना का मातेश्वरी आवड़ा माता से चारण जाति व अन्य आर्य जाति को अनार्य बनाने का कुकर्म व सुमरा शाशक के अत्याचार कावर्णन किया , महामाया ने भक्तो का दुख दूर करने के लिए सपरिवार शिन्ध प्रान्त को गमन किया , बिच रास्ते मे हाकडा नामक समुन्दर थाउसका शोषण किया उक्त आवड़ा माता ने मांड प्रदेश मे हाकडा समुन्दर था उसका शोषण करते हुवे तणोट महाराजा तणु को दर्शन देकरमहामाया पंजाब प्रान्त समासटा प्रदेश के शाशक लाखियार जाम को दर्शन देने पधारी , उक्त जाम आवड़ा माता का भगत था वह माड़ राजालणु की राजधानी अपने अधिकार मे करना चाहता था लेकिन राजा तणु भी आवड़ा माता का अनन्य भगत था , इस बाबत दोनों नरेशों कीआपसी टकराहट रुकवाते हुवे मैया ने सिंध प्रान्त हमीरा सुमरा जो आर्य प्रजा को अनार्य बना रहा था , जगत जननी ने अदृश्य रूप मेलाखियार जाम की सहायता की व सुमरा शाशक को नामोनिशान मिटा दिया !
आवड़जी कच्छ प्रान्त की रहने वाली थी , मामड़जी चारण की पुत्री थी, इनका जन्म ८८८ सवंत आठ सो अठयासी बताया गया हे ! माड़ प्रदेश (जैसलमेर) के भाटी शाशको की अराध्य देवी थी ! यहाँ तेमड़ा नामक दृष्ट राक्षस का संहार करने से तेमडे राय नाम से प्रचलित हुयी ! यह सात बहिने थी , कच्छ प्रान्त से सिंध प्रान्त से हाकड़ा नामक समुन्दर का अस्तित्तव मिटाकर माड़ प्रदेश में अपना निवास स्थान बनाया जहा प्रजा पालक भाटी शासको की हमेशा सहायक रही!वर्तमान में माड़ प्रदेश में रहेनेवाली चारण जातियों में प्रमुख बारहट, रतनु आदि शाखा ओ का उदय आवड जी के समय के बाद हुवा हे !
मेहाजी वंदना करते हुवे कहते हे की मैया शुम्भ निशुम्भ नामक असुरो का संहार करने वाली देवी आवड तुम हो , तुम्हारी राम , शिव , ब्रह्मा, महेश आदि देव हमेशा तपस्या और वाणी से स्मरण करते हे , तुम आवड देवी आदि अनंत हो में आपकी वंदना करता हु !
कवि कहते हे मातेश्वरी आप ने अपनी अलख रूपी इच्छा शक्ति से चारण देव मामड जी के घर दुःख दूर करने और भक्तो को आनंदीत कर ने के उद्देश्य से सात बहिनों और एक भाई के रूप में पालणे में शशरीर रूप प्रगट किया , प्रूव में असुरो का वध करने वाली मैया आपने आवड नाम धारण किया , शुम्भ , निशुम्भ जैसे अनेको असुरो को नाश करने वाली आवड आदि आप ही हो !
मैया के जन्म स्थान के बारे में कवि कहते हे , आपने चेलक नामक ग्राम में मामड जी के घर जाल नामक वृक्ष को पोधे का रोपण किया जो बहूत पुराना वृक्ष था , जिसकी शीतल छाया में गरीबो भक्तो की रखवाली करने और चारण जाती के पुराने भक्त को सुख पहुचाने चेलक ग्राम में प्रगट हुयी! यह ग्राम उस जगह हे जहा हमेशा "मोहिला" यानि दयालु मनुष्य रहते हे ! उस स्थान का इशारा गुजरात की तरफ़ ही हे ! इस प्रकार वहा की लोग मैया की जय जयकार कर रहे हे और मैया का प्रत्येक कमजोर प्राणी की रक्षा करती हे !
कवि कहते हे माता आप भक्तो का उद्धार करने वाली हो , देवताओं सहित पुरी त्रिलोकी की रचना करने वाली हो लेकिन माताजी आप धन्य हे , आप के इस स्वरूप को देखकर पुरा संसार नतमस्तक हे !कवि महामाया के आदि अनादी निवास स्थान के बारे में कहते हे की प्रबतो की गुफाओं जिनके पास बड़े अनूप सरवर तरह - तरह के वृक्ष लताए ऐसे रमणीक स्थान का संकेत हिंगलाज मैया की गुफा की तरफ़ हे , जो बलूचिस्तान प्रदेश में अलोकिक धाम हे , इसका इतिहास इस प्रकार से हे की प्रथम आदि शक्ति दक्ष कन्या सती ने पिता के यज्ञ में कुपित होकर अपना शरीर अग्नि में जला दिया था उस जले हुवे शरीर को उठाकर भगवान शिव तांडव नृत्य करते हुए इस पृथ्वी पर घुमने लगे , शिव प्रकोप से पुरा भूमंडल थर थरा गया , जब भगवान विष्णु ने अपनी युक्ति से सुदर्शन चक्र द्वारा धीरे = धीरे मृत अंगो के टुकड़े कर दिए , और इन सती माता के टुकड़े जहा - जहा गिरे , वहा - वहा शक्ति पीठ बन गए , शरीर का अन्तिम भाग (शीर्ष ) सिर जहा गिरा वहा महामाया के शीष में सुहाग चिन्ह (हिगलू) जो गिरने पर वर्तमान गुफा की जगह खिर गया वह शक्ति का सबसे प्रमुख आदि शक्ति पीठ बना , हिगलू के गिरने के कारण इसे हिंगलाज धाम से जाना जाता हे , उस जगह माता का रास मंडप होता हे ! जहा तेतीस करोड़ देवी देवता शिद्ध चारण आदि वंदना करते रहते हे और अखंड जयोति प्रजलित हे वही महामाया आदि का भी निवास हे !कवि कहते हे की मैया आपके चमत्कारों की महिमा से हर्षित होकर उस प्रान्त के अनेक लोग आपके दर्शन करने और शेरों के रूप में अदभुत रहस्य देख कर सभी अचंभित हे , आप हमेशा चेलक ग्राम में रात्रि को भूखी शेरनियों का रूप धारण कर देत्य रूपेण असुरो का भक्षण करती थी ! इस प्रकार उस जगह जितने भी देत्य - असुर थे , उनका आपने संहार कर दिया था !
गुजरात धरती के सारे असुर मारे गए , वहा की जनता में सुख शान्ति हो गई , वहा के धार्मिक लोगो का मातेश्वरी के निवास स्थान के पास मेले सा दृश्य होता देख , महामाया के अन्य भक्तो का कष्ट हरने परिवार सहित मवेशी लेकर सिंध प्रान्त नानणगढ़ (पाकिस्तान ) की तरफ़ प्रस्थान किया , वहा पर वणिक जाति के भगत सेठ कुशल शाह का परिवार रहता था , उनकी दो पुत्रिया बहूत सुंदर थी, उस ग्राम में सुमरा जाति के लोक रहते थे , उनकी नियत ख़राब हो गई, वह उन कन्याओ से जबरदस्ती ब्याव करना चाहते थे , तब मातेश्वरी का परिवार भगत हितार्थ वहा पहुच गया और उन दृष्ट से वणिक परिवार को मुक्त कराया और उन कन्याओ को मुनि कुशल सूरी के साथ माड़ प्रदेश भेज दिया , आज भी उस मुनि का धाम वैशाखी तीर्थ पर हे जहा जैन जाति के वणिक बड़े मन से पूजा करते हे !
जब भगत वणिको को मलेच्छो से भरी डर लगने से वह मन में बड़े व्याकुल होने लगे तब मैया ने उन्हें अपना अलोलिक रूप दिखाया जिसमे मैया सिंह पर विराजमान थी ! सिर पर मुकुट धारण किया हुवा था, देखने में न बालिका थी न बुढिया थी ! इस अलोकिक रूप को देखकर वणिक हर्षित हुवे और महामाया की शरण ग्रहण की , उक्त कन्याओ को माड़ प्रदेश की तरफ़ भेजने से उन दृष्ट मलेच्छो ने वणिको पर हमला बोल दिया तब महामाया ने उन को मार गिराया !
जब महामाया का ऐसा चमत्कार होने से सातों दिव्पो में शोभा होने लगी , भगवान भास्कर अपना रथ रोक कर मैया की रास लीला देखने लगे , मलेच्छ युद्ध भूमि छोड भाग गये , उन्होंने जाकर सुमरा शासक से वृतांत सुनाया लेकिन शासक चारण जाति की शक्तियों से डरता था उसने उन दृष्टो की बात को अनसुना कर दिया तब उन्होंने शासक के पुत्र को उकसाया की उक्त चारण ने ही , हम जिस वैश्य कन्याओ को पाना चाहते हे , उन्हें माड़ प्रदेश भेज देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी थी ! हमें तो कुछ भी नही मिला लेकिन तुम अगर चाहो तो इस चारण परिवार की सभी पुत्री इतनी सुंदर हे जैसी हमने आज तक संसार में नही देखी! वह दृष्ट शुमरो पुत्र नुरन उन चाटुकारों की बातो को सुनकर मन में मोहित होकर सोचने लगा ! इतने में उसके सेवक हजामती ने भी मातेश्वरी के रूप लावण्य की प्रशंसा करने लगा और कहने लगा आप बादशाह के युवराज है , आपके लायक यह चारण पुत्री हे तब तो यह बात सुनते ही , उन्हें पाने के लिये आतुर हो गया और तुंरत मामड़जी से अपनी बड़ी पुत्री का ब्याह करने का प्रस्ताव रखा ! तब मामड़जी ने दुखी होकर उन्हें दो दिन बाद जवाब देने को कहा , वापिस घर आये , पिता की परेशानी का आभास हो गया , मैया ने पिता से कहा आप को कोई चिंता करने की जरुरत नही हे ! कल बादशाह के दरबार में आपके साथ चलुगी , उसे समझा देंगे , शायद वह मन जायेगा, दुसरे दिन पिता के साथ आवड देवी सुमरे शासक के दरबार में पहुची ! सभी दरबारियों और बादशाह के सामने बड़ी उच्च गर्जना करते हुवे कहा शासक तेरे पुत्र ने जो अधर्म पूर्वक प्रस्ताव रखा हे वह अन्याय पूर्ण हे हम आपकी रियासत में रहते हे , यहाँ का अन्न जल ग्रहण किया हे ! तुम एक समझदार सम्राट हो अपने पुत्र को समझा देना , अन्यथा मेरे श्राप से तुम्हारा समूल वंश नष्ट हो जायेगा ! इतना कहकर देवी अपने निवास पधार गयी !!
अब सातों बहिनों ने मातेश्वरी आवड जी के आदेश से विचार करते हुए अपने परिवार का यहाँ रहना ठीक न समझकर रात्रि में ही माड़ प्रदेश को गमन किया ! बीच रास्ते में एक अथाह हाकड़ा नामक समुन्द्र था , उसने अथाह जल था कही से भी पार होने का रास्ता न देखकर मैया ने समुन्द्र को मार्ग देने को कहा !लेकिन होनी बड़ी प्रबल होती हे ! मैया की लीला वो जाने ,समुन्द्र मार्ग देना तो दूर रहा , वह तो पहले से दुगने घमंड वेग से उची उची हिलोरे मारने लगा ! तब मातेश्वरी के क्रोध की सीमा नही रही , उन्होंने अपनी हाथ की अंगुली से स्पर्श करते हे पुरा अथाह समुन्द्र रेगिस्तान में बदल दिया ! धन्य हे मैया की अदभुत लीला !!
जब चारण परिवार रात्रि को रवाना हो गया तो उन दृष्टो मलेच्छो की बुद्धि भ्रमित हो गयी और सोचने लगे उक्त चारण लड़कियों कोई अवतार वगेरा नही हे! अगर ऐसा होता तो यू ही रात को थोड़े ही भागती , इस प्रकार उन लोगो में अत्यंत दूषित भावना भर गयी ! और सारे लोग घोडों पर बैठकर मैया के पुरे परिवार को पकड़ने समुन्द्र के किनारे पहुच गये ! तब तक मैया ने समुन्द्र के जल को डकार लिया था, जब उन दृष्टो को आया देखा तो मैया को इतना क्रोध आया जिस प्रकार श्री राम ने जनक के शिव धनुष के टुकड़े किए थे , या जैसे चंड मुंड आदि दृष्टो का संघार किया था या कपिल मुनि ने ने जिस प्रकार सागर पुत्रो को भस्म किया था ऐसा क्रोध करते हुवे मैया ने उनका सर्वनाश कर माड़ प्रदेश को गमन किया जहा हिंदू सम्राट जैसलमेर घराने के पूर्व कृष्ण वंशी राजा तणू की राजधानी तणोट कर उन्हें आशीर्वाद दिया की प्रजा में सुख चेन करने अनेको दृष्टो और वन मनुष्यों का संधार किया और महामाया के आवागमन से माड़ भूमि धन्य हो गयी ! इस सातो बहिनों भाई के साथ भक्तो के हितार्थ अनेक लिलाए करने लगी और अपने पिता को हाथो से भोजन परोसने लगी !कवि कहते कवि महामाया सर्वप्रथम महाराजा तणु जिसकी राजधानी तणोट थी उसके बाद वीझाणोट पधारी और विजय राव चुडाला को चुड़ बगसीस की फ़िर दुर्ग कोट भूप देरावर पर दया की फ़िर लुघ्रवे पधारी ! इस प्रकार भाटी शासको पर मातेश्वरी की हमेशा दया बनी रही ! इसके बाद मातेश्वरी ने घंटीयाल नामक असुर को मार , घंटीयाल राय की स्थापना की ! बाद में भादरिया नामक भाटी के आग्रह पर पधारी , उक्त स्थान को भादरिया राय नाम से जाना जाता हे ! दर्शन देने के लिए महामाया वहा पधारी जहा भादरिया राय नामक स्थान बन गया , इस प्रकार अंत में जहा देग राय का स्थान हे ! वहा सपरिवार पधारी इसी जगह ख़ुद के श्राप से भाई को पीणा सर्प ने डसा था और एक असुर भेंसे को काटकर देग नामक बर्तन में पकाया था , इसी कारण उक्त स्थान देग राय कहलाता हे !! कवि कहते हे देग नामक स्थान पर महामाया ने भेंसे का भक्षण कर के एक साबड़ बुगा नामक असुर को मार गिराया और उसका रक्त पान किया !
कवि कहते हे जब मातेश्वरी के भाई को पणे सर्प ने डस लिया तब सभी बहिनों ने मैया से सूर्य रोकने और एक लोगदे नामक बहन को औषधि लाने भेजा , सूर्य की किरणों के कारण पेणे सर्प का डसा ख़त्म हो जाता हे !
औषधि लाने सबसे छोटी बहेन को भेजा , मैया ने बड़े वेग से पुरे भूमंडल में ढूंढ़कर सोले पहर यानि दो दिन में पुरा संसार का भ्रमण किया , इस प्रकार वापिस आते समय पैर में चौट लग गई , इस कारण उस बहिन को खोडियार नाम से पुकारा जाता हे ! इधर आवड माता ने दो दिन तक अपनी लोहड़ी से आकाश में एसा धुंध कोहरा फेला दिया जिससे सूर्य की किरणे धरती पर नही पहुची , किसी को भी सूर्य के दर्शन नही हुवे , यह मातेश्वरी का तपोबल था ! महामाया ने भगवान् भास्कर की मर्यादा भंग नही की , जिस प्रकार कभी कभी ज्यादा धुंध होने से सूर्य दिखाई नही देता इसी क्रम में मैया ने प्रकुति की देन से पृथ्वी और सूर्य के बिच आवरण छाया रहा और इस प्रकार माया को देख कर सूर्य महामाया की वंदना करने लगे !
कवि कहते हे इस प्रकार महामाया के माड़ प्रदेश में अनेको चमत्कार होते देख कर इन तपोबली विभूतियों के आगे सभी जय जय करने लगे तब मैया भक्तो का दुःख दूर करने और असुरो की आहुतिया लेने लगी ! कवि कहते हे इस प्रकार से महामाया ने अपने हाथ में त्रिशूल धारण कर शीश पर छत्र और शत्रुओ का संधार करने के लिए सिंह पर आरूढ़ होकर शिव का स्मरण कर दृष्टो का नाश करने को तेयार हो गई !
इस प्रकार से महामाया दृष्टो का संहार करने रवाना हो गई तब इसी सुशेभित हो रही थी जैसे घटो टॉप बादलो में भास्कर से भी तेज अदभुत था ! गले में मुक्तिमान मणि प्रकाशन मान थी, इस रूप को निहारकर भगवान सूर्य नमस्कार कर रहे थे उनके हाथ में तलवार ढाल खुफर और लाल रंग की ध्वजा लहरा रही थी !
महामाया ने हुण असुरो की भारी सेना को देखा , तब मातेश्वरी ने शरीर पर बगतर धारण किए सिधुवे राग का उचारण होने लगा , हुणों की सेना को कटार द्वारा धराशाही करने से खून की नदिया चलने लगी और हुणों की सेना का सफाया होने लगा !
जब हुणों और महामाया में युद्ध हो रहा था तब बड़ी भयंकर ध्वनी सुनाई दे रही थी अनेको मातेश्वरी के अग्रग्रामी भैरव प्रगट हो गए ! हुणों की सेना का नाश हो गया , सिंह पर आरूढ़ होकर हाथ में चक्र लेकर मैया अट्टहास करने लगी , हूण सेना नायक तेमड़ा नमक असुर भागने लगा !
जब तेमड़ा असुर भागने लगा तो मातेश्वरी ने अपना अनेक भुजावो वाला विकराल कालका रुपी शरीर धारण कर , सिंह पर बैठी हुवी अपने भाले से दृष्ट को दबोच लिया और एक पहाड़ की गुफा में डालकर सातों बहिनों ने अपना आसन जमा लिया ! उक्त स्थान को आज तेमडे राय नाम से जाना जाता हे !
उस समय महामाया के दिव्य आभूषण धारण किए हुवे थे जिसमे सोने का कवच माणक हीरो से जडित मुगट गोरे हाथो में नग जडित व रुद्राक्ष की माला व मुद्रिका व अन्य हाथो में पहनी हुवी झुमरी की लड़े बड़ी ही सुंदर शोभायण हो रही थी !कवि कहते हे मातेश्वरी ने सिंह पर आरूढ़ होकर पृथ्वी पर अनेको दृष्टो भूतो का नाश किया , प्रजा में राम राज्य स्थापित किया ! कवि कहते हे अब मातेश्वरी ने अपनी लीला से लोकिकता से चौथे आश्रम में प्रवेश किया हे अपने शरीर में सफ़ेद दाढ़ी मुछ बना ली हे ! कानो में सफ़ेद शीष पर आभूषण भी सफ़ेद धारण किए हे जो मोती की तरह दमक रहे हे !कवि कहते हे मैया में तेमड़ा नामक स्थान पर अनेको वाघ यंत्रो की ध्वनी होने लगी , ढोल , झीझा , चंग आदि वाजे बजने लगे , सातो बहिनों ने तारंग शीला पर बैठकर पतंग की तरह शशरीर उडान भरी , हिंगलाज धाम को गमन किया व तेमड़ा धाम को हिंगलाज का दूसरा दर्जा प्रदान किया !
मैया ने जब हिंगलाज धाम गमन किया तो माड़ प्रदेश के राजा देवराज ने तेमड़ा नामक स्थान (पर्वत )पर मन्दिर बनाया व सात रूपों में पत्थर की मूर्ति स्थापित करवाई व उक्त चित्र अंकित करवाये ! भक्त जन पूजा अर्चना करने लगे !!शुक्ल पक्ष की सातम को बड़ा भारी मेला लगता हे , प्रत्येक मास की में अनेको यात्री दर्शन की लिए आते हे !!कवि कहते हे उक्त तेमडे नामक स्थान पर समय समय पर मैया के अनेक रूपों में मातेश्वरी के दर्शन होने लगे , सर्वप्रथम अग्नि जोत के फ़िर नाग नागनी के , सुगन चिडिया के , फ़िर समली के कभी सिंह के व अंत में छछुदरी के दर्शन होने लगे !!कवि कहते हे मैया ने अपना विराट रूप धारण करते हुए कही पर डुररेचियों, नागणेचियों आदि रूपों में जगह जगह प्रत्येक ग्रामो नगरो में स्थापित होकर भक्तो का दुःख दूर करने लगी !
मेहाजी कहते हे आपका मनुष्य रूपेण अवतार धारण करने का फ़िर समय आ गया हे भक्त दुखी हो रहे हे जगह जगह अराजकता फैली हुयी हे !में व्याकुल हु अधीर हु , निपुतिया हु , मुझे सुख पहुचावो व दुनिया को दिखा दो की आवड शक्ति पहले भी थी और आज भी हे व आगे भी रहेगी ! माता ने हर्षित होकर सात रूपों को एक रूप में समाहित करते हुवे महामाया श्री करणी के रूप में अवतार धारण करने की मेहाजी को तथा अस्तु कहते हुए आशीर्वाद वचन कहा !
अनेक बुजुर्गो की राय व सभी चारण समुदाय के विद्वान लोग गुजरात में ही आवड माता का जन्म स्थान बता रहे हे !

मातेश्वरी श्री तनोट राय जी,


मातेश्वरी श्री तनोट राय जी, (तनोट धाम)
जैसलमेर से करीब 130 किमी दूर स्थि‍त माता तनोट राय (आवड़ माता) का मंदिर है। तनोट माता को देवी हिंगलाज माता का एक रूप माना जाता है। हिंगलाज माता शक्तिपीठ वर्तमान में पाकिस्तान के बलूचिस्तान प्रांत के लासवेला जिले में स्थित है।

भाटी राजपूत नरेश तणुराव ने तनोट को अपनी राजधानी बनाया था। उन्होंने विक्रम संवत 828 में माता तनोट राय का मंदिर बनाकर मूर्ति को स्थापित किया था। भाटी राजवंशी और जैसलमेर के आसपास के इलाके के लोग पीढ़ी दर पीढ़ी तनोट माता की अगाध श्रद्धा के साथ उपासना करते रहे। कालांतर में भाटी राजपूतों ने अपनी राजधानी तनोट से हटाकर जैसलमेर ले गए परंतु मंदिर तनोट में ही रहा।
तनोट माता का य‍ह मंदिर यहाँ के स्थानीय निवासियों का एक पूज्यनीय स्थान हमेशा से रहा परंतु 1965 को भारत-पाक युद्ध के दौरान जो चमत्कार देवी ने दिखाए उसके बाद तो भारतीय सैनिकों और सीमा सुरक्षा बल के जवानों की श्रद्धा का विशेष केन्द्र बन गई।
सितम्बर 1965 में भारत और पाकिस्तान के बीच युद्ध शुरू हुआ। तनोट पर आक्रमण से पहले श‍त्रु (पाक) पूर्व में किशनगढ़ से 74 किमी दूर बुइली तक पश्चिम में साधेवाला से शाहगढ़ और उत्तर में अछरी टीबा से 6 किमी दूर तक कब्जा कर चुका था। तनोट तीन दिशाओं से घिरा हुआ था। यदि श‍‍त्रु तनोट पर कब्जा कर लेता तो वह रामगढ़ से लेकर शाहगढ़ तक के इलाके पर अपना दावा कर सकता था। अत: तनोट पर अधिकार जमाना दोनों सेनाओं के लिए महत्वपूर्ण बन गया था।
17 से 19 नवंबर 1965 को श‍त्रु ने तीन अलग-अलग दिशाओं से तनोट पर भारी आक्रमण किया। दुश्मन के तोपखाने जबर्दस्त आग उगलते रहे। तनोट की रक्षा के लिए मेजर जय सिंह की कमांड में 13 ग्रेनेडियर की एक कंपनी और सीमा सुरक्षा बल की दो कंपनियाँ दुश्मन की पूरी ब्रिगेड का सामना कर रही थी। शत्रु ने जैसलमेर से तनोट जाने वाले मार्ग को घंटाली देवी के मंदिर के समीप एंटी पर्सनल और एंटी टैंक माइन्स लगाकर सप्लाई चैन को काट दिया था।

दुश्मन ने तनोट माता के मंदिर के आसपास के क्षेत्र में करीब 3 हजार गोले बरसाएँ पंरतु अधिकांश गोले अपना लक्ष्य चूक गए। अकेले मंदिर को निशाना बनाकर करीब 450 गोले दागे गए परंतु चमत्कारी रूप से एक भी गोला अपने निशाने पर नहीं लगा और मंदिर परिसर में गिरे गोलों में से एक भी नहीं फटा और मंदिर को खरोंच तक नहीं आई।
सैनिकों ने यह मानकर कि माता अपने साथ है, कम संख्या में होने के बावजूद पूरे आत्मविश्वास के साथ दुश्मन के हमलों का करारा जवाब दिया और उसके सैकड़ों सैनिकों को मार गिराया। दुश्मन सेना भागने को मजबूर हो गई। कहते हैं सैनिकों को माता ने स्वप्न में आकर कहा था कि जब तक तुम मेरे मंदिर के परिसर में हो मैं तुम्हारी रक्षा करूँगी।
सैनिकों की तनोट की इस शानदार विजय को देश के तमाम अखबारों ने अपनी हेडलाइन बनाया।

एक बार फिर 4 दिसम्बर 1971 की रात को पंजाब रेजीमेंट की एक कंपनी और सीसुब की एक कंपनी ने माँ के आशीर्वाद से लोंगेवाला में विश्व की महानतम लड़ाइयों में से एक में पाकिस्तान की पूरी टैंक रेजीमेंट को धूल चटा दी थी। लोंगेवाला को पाकिस्तान टैंकों का कब्रिस्तान बना दिया था।

1965 के युद्ध के बाद सीमा सुरक्षा बल ने यहाँ अपनी चौकी स्थापित कर इस मंदिर की पूजा-अर्चना व व्यवस्था का कार्यभार संभाला तथा वर्तमान में मंदिर का प्रबंधन और संचालन सीसुब की एक ट्रस्ट द्वारा किया जा रहा है। मंदिर में एक छोटा संग्रहालय भी है जहाँ पाकिस्तान सेना द्वारा मंदिर परिसर में गिराए गए वे बम रखे हैं जो नहीं फटे थे।
सीसुब पुराने मंदिर के स्थान पर अब एक भव्य मंदिर निर्माण करा रही है।
लोंगेवाला विजय के बाद माता तनोट राय के परिसर में एक विजय स्तंभ का निर्माण किया, जहाँ हर वर्ष 16 दिसम्बर को महान सैनिकों की याद में उत्सव मनाया जाता है।
हर वर्ष आश्विन और चै‍त्र नवरात्र में यहाँ विशाल मेले का आयोजन किया जाता है। अपनी दिनोंदिन बढ़ती प्रसिद्धि के कारण तनोट एक पर्यटन स्थल के रूप में भी प्रसिद्ध होता जा रहा है।
इतिहास: मंदिर के वर्तमान पुजारी सीसुब में हेड काँस्टेबल कमलेश्वर मिश्रा ने मंदिर के इतिहास के बारे में बताया कि बहुत पहले मामडि़या नाम के एक चारण थे। उनकी कोई संतान नहीं थी। संतान प्राप्त करने की लालसा में उन्होंने हिंगलाज शक्तिपीठ की सात बार पैदल यात्रा की। एक बार माता ने स्वप्न में आकर उनकी इच्छा पूछी तो चारण ने कहा कि आप मेरे यहाँ जन्म लें।
माता कि कृपा से चारण के यहाँ 7 पुत्रियों और एक पुत्र ने जन्म लिया। उन्हीं सात पुत्रियों में से एक आवड़ ने विक्रम संवत 808 में चारण के यहाँ जन्म लिया और अपने चमत्कार दिखाना शुरू किया। सातों पुत्रियाँ देवीय चमत्कारों से युक्त थी। उन्होंने हूणों के आक्रमण से माड़ प्रदेश की रक्षा की।

माड़ प्रदेश में आवड़ माता की कृपा से भाटी राजपूतों का सुदृढ़ राज्य स्थापित हो गया। राजा तणुराव भाटी ने इस स्थान को अपनी राजधानी बनाया और आवड़ माता को स्वर्ण सिंहासन भेंट किया। विक्रम संवत 828 ईस्वी में आवड़ माता ने अपने भौतिक शरीर के रहते हुए यहाँ अपनी स्थापना की।

विक्रम संवत 999 में सातों बहनों ने तणुराव के पौत्र सिद्ध देवराज, भक्तों, ब्राह्मणों, चारणों, राजपूतों और माड़ प्रदेश के अन्य लोगों को बुलाकर कहा कि आप सभी लोग सुख शांति से आनंदपूर्वक अपना जीवन बिता रहे हैं अत: हमारे अवतार लेने का उद्देश्य पूर्ण हुआ। इतना कहकर सभी बहनों ने पश्चिम में हिंगलाज माता की ओर देखते हुए अदृश्य हो गईं। पहले माता की पूजा साकल दीपी ब्राह्मण किया करते थे। 1965 से माता की पूजा सीसुब द्वारा नियुक्त पुजारी करता है।